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एक यात्रा ईश्वर के संरक्षण में : संस्मरण उस बस यात्रा का जिससे सकुशल पहुँचना भगवद्कृपा से कम नहीं

“…वह गाली कला विशेषज्ञ लग रहा था। मुझे अब पूर्ण विश्वास हो गया था कि किसी और मामले में न सही गाली देने की दृष्टि से हमारा देश आत्म निर्भर है। छोटे से लेकर बडे व्यक्ति के पास गालियों का अक्षय कोष विद्यमान है तथा भारतीय नारी भी इस क्षेत्र में पुरुष से दो कदम आगे भले हों, पीछे नहीं है…” (इसी व्यंग्य से)


एक यात्रा-ईश्वर के संरक्षण में  : डॉ. मंगत बादल

जब मुझे पता चला कि बेरियां वाली जाने वाली “ग्रामीण आँचल बस” यहीं से चलेगी तो मैं चाय के ढाबे पर बैठ गया। बातों ही बातों में मुझे पता चला कि मैं जिन दो महानुभावों से संवाद-लाभ कर रहा हूँ वे महापुरुष और कोई नहीं, उक्त बस के चालक और परिचालक हैं। उनके दर्शन कर मेरे भीतर बैठा कुत्ता पूंछ हिलाने लगा क्योंकि अब मुझे विश्वास हो गया था कि इन लोगों के साथ होने से मैं अनजान जगह तो क्या भवसागर की विकट यात्रा भी आसानी से तय कर लूँगा। मैंने उन्हें आग्रह पूर्वक चाय पिलाई तो वे प्रसन्न हुए। मैंने जब उन्हें बताया कि मैं भी बेरियाँ वाली जा रहा हूँ। सीमा का क्षेत्र है और मेरा वहाँ कोई परिचित नहीं है तो उन्होंने गद्गद् भाव से मुझे सान्त्वना दी कि जिनका कोई नहीं होता, उनका ईश्वर मालिक होता है और इसी के साथ अपनी “एक्सप्रैस गड्डी” से मुझे वहाँ तक पहुँचाने की गारण्टी दी। मैं उनकी कृपा से निश्चिन्त हो गया। चालक महोदय ने मेरी सीट रुकवाने की गरज से क्लीनर को बुलाने के लिए एक लम्बा आलाप लिया। क्लीनर के न दिखलाई पड़ने पर चालक के मुख से गालियों का जो अजस्र स्रोत प्रवाहित हुआ कि मैं उन्हें सुनकर धन्य हो गया।

वह गाली कला विशेषज्ञ लग रहा था। मुझे अब पूर्ण विश्वास हो गया था कि किसी और मामले में न सही गाली देने की दृष्टि से हमारा देश आत्म निर्भर है। छोटे से लेकर बडे व्यक्ति के पास गालियों का अक्षय कोष विद्यमान है तथा भारतीय नारी भी इस क्षेत्र में पुरुष से दो कदम आगे भले हों, पीछे नहीं है, किन्तु “क्लीनर” आता नहीं दिखलाई दिया तो उनका “पारा” ऊपर चढ़ने लगा। उन्होंने ऊँचे स्वर में “क्लीनर” की माँ से जिस प्रकार सम्बन्ध स्थापित किए उस दृष्टि से तो वे क्लीनर के पिता ठहरते थे किन्तु थोड़ी देर बाद उनकी रुचि उसका बहनोई बनने में प्रकट होने लगी। तभी उन्हें क्लीनर पायजामा बाँधते हुए अपनी ओर आता दिखलाई पड़ा तो उन्होंने एक बार फिर उसके समक्ष गालियों का नवीनीकरण किया। मुझे तो फौजदारी का भय लग रहा था किन्तु क्लीनर उन गालियों को प्रफुल्लता के भाव से श्रवण करता रहा। निंदा और प्रशंसा से दूर निष्काम कर्मयोगी-सा वह जिस समरसता की स्थिति में दिखलाई पड़ रहा था वह तो “अमर मुनिजन” के लिये भी दुर्लभ थी। शिष्यत्व का वह भव्य, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और परस्परागत भारतीय रूप देखकर क्लीनर के प्रति मेरा मस्तक श्रद्धा से झुक गया। चालक महोदय ने क्लीनर को समझाया कि वह मेरा अटैची (ब्रीफकेस) ‘स्टाफ सीट पर रख दे। मुझे प्रसन्नता हुई कि मैं केवल दो कप चाय पिलाकर उनके स्टाफ का सम्मानित सदस्य बन गया था।

ना..ना.. ये शरणार्थियों का कैम्प नहीं..: 

स्थिति की नाजुकता तो मेरी समझ में तब आई जब मैंने बस को स्टैण्ड की ओर आते देखा। जिस भीड़ को मैं अब तक शरणार्थियों का कैंप समझे बैठा था वे इसी बस पर चढ़ने वाली सावरियाँ थीं। बस दिखलाई पड़ते ही वे लोग मधु मक्खियों की भांति उस पर टूट पड़े। उनकी वीरता दर्शनीय थी। मैंने देखा कि कुछ सवारियाँ तो बस के अन्दर पहुँच चुकी हैं।

कुछ मुख्य द्वार से अन्दर पहुँचने के लिये संघर्षरत हैं। कुछ सवारियाँ जो साहसी थीं और जोखिम लेने से नहीं झिझकती थीं, वे खिड़कियों के मार्ग से भीतर घुस रही थीं। कुछ सवारियाँ अपना सामान या पगड़ी आदि खिड़कियों के माध्यम से सीटों पर पहुँचाकर उन सीटों की दावेदार बन गई थीं। बस को यथास्थान पर खड़ा कर चालक मेरे पास आकर खड़ा हो गया और परिचालक अन्य सवारियों को बुलाने के लिये जोर-जोर से “बेरियों वाली “बेरियों वाली चिल्लाने लगा। बस चलने में अभी कुछ देर थी।

बस ऐतिहासिक थी। मुझे तो लग रहा था कि हो न हो यह वही बस है जिसका निर्माण भारत में सर्वप्रथम हुआ था। इसे तो अब अजायब घर में होना चाहिए था। पुरातन वस्तुओं के प्रति भारतीयों की लापरवाही को लेकर मैं दुःखी हुआ। इस बस का रंग कैसा था यह तो मैं आपको निश्चित् रूप से नहीं बतला सकता। इस का यह तात्पर्य नहीं कि मैं रंग-सम्बधी किसी दृष्टि विकार (कलर ब्लाईंडनैस) का शिकार हूँ बल्कि यह कि उस पर समय-समय पर जो रंग पोते गये थे वे सब रंग अपनी-अपनी अनुपम छटा बिखेर रहे थे। खिड़कियों पर शीशे तो थे ही नहीं। सामने का भी केवल एक शीशा ही सलामत था। चालक तो खुली हवा का आनन्द लेते हुये ही बस चलाता था। मैं बस का जायजा ले रहा था कि वहाँ दो व्यक्ति प्रकट हुये और उन्होंने कहा कि बस का समय हो गया है। (वे किसी दूसरी प्राईवेट बस के चालक और परिचालक थे) हमारी बस के चालक और परिचालक ने अपनी-अपनी घड़ियाँ देखकर बतलाया कि अभी दो मिनट बाकी हैं। फिर तो जमकर बहस होने लगी। एक दूसरे का छिद्रान्वेषण करते हुये गालियों का आदान-प्रदान हुआ। गनीमत थी कि झगड़ा नहीं हुआ।

इससे मैं ने यह अनुमान लगाया कि ऐसे प्रकरण यहाँ के दैनिक कार्यक्रमों में सम्मिलित हैं। इसी बीच भारतीय घड़ियों के प्रति अविश्वसनीयता प्रकट करते हुये उनकी भर्त्सना की गई। जो लोग कहते हैं कि भारत में समय के प्रति लोगों का दृष्टिकोण अनुदार है वे समय का अपव्यय करते हैं, किन्तु मैं उन्हें चुनौती देता हूँ कि वे किसी प्राईवेट चलने वाली बसों के अड्‌डे पर आकर देखें। समय के प्रति भारतीयों की जागरूकता देखकर उनकी आँखें खुल जायेंगी। अन्ततः समझौता हो गया किन्तु बस दस-पन्द्रह मिनट लेट हो गई। बस में सवार होने के लिये जब मैं बस के पास पहुँचा तो मैंने देखा कि मैं जितने प्रयत्न बस में घुसने के लिये करूँगा, उतने प्रयत्नों से तो मैं किसी विधान सभा या संसद तक में घुस सकता हूँ। दरवाजों के दोनों ओर डंडे पकड़-पकड़ कर लोग लटक रहे थे। मैं उन्हें देखकर इसलिए आशान्वित हुआ कि आगामी किसी ओलोम्पिक स्पर्धा में ये लोग जिमनास्टिक में भारत के लिये कोई स्वर्ण पदक झटकने में समर्थ हो सकते हैं। बस में किस प्रकार प्रवेश करूँ, अब यह समस्या मेरे सामने प्रमुख थी। तभी “संकट मोचन के रूप में परिचालक का स्वर सुनाई दिया। सा’ब आपकी सीट तो आगे है। आप ड्राईवर की खिड़की से अन्दर घुस जायें यह स्वर सुनकर मेरी स्थिति अब ‘मीन मरत जल पायो’ जैसी हो गई।

सीट साझा करने का लिंग-उम्र समीकरण : 

भारत-दर्शन के लिये जाने वाले सज्जनों से मेरा अनुरोध है कि वे भारत यात्रा से पूर्व किसी देहात आँचल में जाने वाली ऐसी बस की यात्रा करलें। फिर यदि इच्छा शेष रहे तभी भारत भ्रमण को निकलें क्योंकि संभव है उन्हें बस के भीतर ही भारत दर्शन हो जायें। मैं तो इस बस में पूरे भारत को देख रहा था। एक सीट को लेकर दो यात्रियों में पंजाब की स्थिति बनी हुई थी तो दूसरी पर श्रीलंका की। शांति सेना के रूप में कोई तीसरा उनकी सीट पर काबिज हो चुका था जो उन दोनों यात्रियों के लिये अंगद के पाँव से कम साबित नहीं हो रहा था।

एक अन्य सीट पर बैठे दो युवकों को एक वृद्धा उनकी जवानी की दुहाई देकर उनसे सीटें हथियाना चाहती थी जिन पर वह स्वयं और अपनी जवान बेटी को बिठाना चाहती थी। युवकों की बुढ़िया में कोई दिलचस्पी नहीं थी क्योंकि वे बस में धक्के खाकर अपनी जवानी का अपव्यय करने के पक्ष में नहीं थे। हाँ। बुढ़िया के चाहने पर ये येन-केन प्रकारेण युवती को तो अपने पास बिठा सकते थे। किसी की गठरी, किसी की संदूकची, किसी का बिस्तरबन्द, गुड़ के बोरे, फुटकर सामान आदि इतना था कि एक दूसरी माल वाहक बस साथ चल सकती थी। सवारियों की गिनती करने की सामर्थ्य मुझ में नहीं थी क्योंकि यदि सीटों के अनुसार बसें चलाई जाती तो शायद दो बसों का और प्रबन्ध करना पड़ता। बच्चों का रुदन गर्मी की चिपचिपाहट, उमस, पसीना, एक दूसरे से झगड़ने का स्वर आदि कुछ इस प्रकार गड्मड् हो चुका था कि वास्तविकता समझना किसी मतदाता के हृदय की टोह लेना था।

धक्कामार ज़िम्मेदारी : 

बस में चालक महोदय चढ़े, उन्होंने अपने दोनों हाथों से दोनों कान पकड़े और ‘सैल्फ’ मारा किन्तु बस अड़ियल टट्टू बन गई। तब चालक ने स्थानीय भाषा में बस को एक गाली दी और उसके बाद परिचालक को धक्का लगवाने के लिये कहा। परिचालक ने यात्रियों को गुहार लगाई किन्तु कोई भी यात्री बस से नीचे नहीं उतरा। यद्यपि अब तक सभी यात्री अपने-अपने स्थान कानूनी रूप से अधिकृत कर चुके थे फिर भी जब तक बस चल न दे सीट रुक जाने का एक खतरा निरन्तर बना हुआ था। (सीट से तात्पर्य यहाँ उस जगह से है जिसके कारण यात्री अपनी उपस्थिति बस में बनाये रखता है।) दरवाजे पर लटके लोग भी टस से मस नहीं हो रहे थे क्योंकि अब बस की छत व सीढ़ियाँ भी रुक चुकी थीं। खैर। परिचालक ने क्लीनर की सहायता से चार-पाँच यात्रियों को दरवाजे से खींच कर उसी प्रकार अलग किया जिस प्रकार कच्चे पत्ते को पेड़ से तोड़ा जाता है अथवा दूध पीते बछड़े को गाय से अलग किया जाता है। गनीमत थी कि बस धक्के देने से चल पड़ी।

प्रत्येक यात्री को टिकट देने का दायित्व परिचालक का होता है और जिस कुशलता से परिचालक अपना दायित्व निर्वाह कर रहा था उसे देखकर मेरा मन कर रहा था कि काश मैं ऐसा सक्षम अधिकारी होता जो इस वीर-धीर-गंभीर परिचालक को “परमवीर चक्र की उपाधि से अलंकृत करता। प्रत्येक यात्री से पैसे प्राप्त कर उसे टिकट देना और बकाया राशि लौटा देने का कार्य वह जिस कुशलता से सम्पन्न कर रहा था उसे देखकर मुझे उसमें असीम संभावनायें दिखलाई पड़ रही थीं। वह यात्रियों को आगे-पीछे कर जिस प्रकार अपने लिये जगह बना रहा था उससे लगता था कि इस व्यक्ति की प्रतिभा का यहाँ दुरुपयोग किया जा रहा है। जिस प्रकार वह अधिकाधिक सवारियाँ बस में ठूंस रहा था उसे देखकर यह अनुमान कोई सहज ही लगा सकता था कि अवश्य ही यह महानुभाव पहले डिब्बों में मछलियाँ पैक’ किया करता था। चलती बस के भयंकर शोर में यात्रियों का शोर उसी प्रकार विलीन हो रहा था जैसे समुद्र में नदियों का जल। परिचालक यात्री के चेहरे मात्र को देखकर पहचान जाता था कि उसका गंतव्य कौन-सा है। और वह सवारी को बिना पूछे उसके हाथ में टिकट थमा देता। किसी-किसी यात्री के सामान की टिकट के लिये यदि परिचालक और सवारी में कोई मत भेद होता तो बस रोक ली जाती और सवारी को सामान सहित उतरने का कठोर शब्दों में “निवेदन” किया जाता, फलस्वरूप मामला सुलट जाता।

चालक जिस कुशलता से बस का संचालन कर रहा था उसे देखकर निःसंदेह कहा जा सकता था कि वह भारतीय वायु सेना में वायुयान चालक रहा है क्योंकि उसकी हरकतें देखकर लगता था कि वह बस को चलाना नहीं बल्कि उडाना चाहता है। जबकि बस की स्पीड’ का यह आलम था कि वह आधा घंटे में केवल छः सात किलोमीटर सरक पाई थी। जब बस उछलती तो पिछली सीटों पर बैठी सवारियों के सिर छत से टकरा जाते थे और छत पर बैठी सवारियाँ एक साथ बस को पीटने लगतीं तब परिचालक के मुंह से अभ्यासवश निकल जाता स्पीड धीमी रखो भाई। चालक प्रत्येक सवारी को वह चाहे कहीं मिलती, उसे बस में चढ़ाना अपना धर्म समझता। इस घोर कलियुग में ऐसे परमार्थी व्यक्ति को देखकर मेरे हृदय में उस के प्रति श्रद्धा के भाव उमड़ आये।

सुनियोजित आकस्मिक निरीक्षण : 

अचानक बस रुक गई। परिचालक के पूछने पर चालक ने बताया कि यातायात निरीक्षक हैं। वह बस से नीचे उतर कर उनसे हिसाब-किताब करले। परिचालक बस से उतरकर यातायात निरीक्षक की जीप के पास चला गया। वहाँ कुछ लेन-देन के बाद वह मुस्कराता हुआ पुनः बस पर लौट आया। यातायात निरीक्षक ने न सवारियों देखीं और न ही बस की हालत। अपना काम करने के बाद उनकी जीप फर्राटे भरती हुई चली गई। रह गई हमारी बस। जिसमें हम जैसे लोग यात्रा कर रहे हैं। करते रहेंगे। अचानक मैंने अपने सामने लिखी इबारत पढ़ी। शायद रंग करते बार लिखी गई होगी। “ईश्वर आपकी यात्रा सफल करे”

मैं बस मालिकों की अस्तिकता पर मुग्ध हो गया क्योंकि कोई ईश्वरीय शक्ति ही है जो आपकी यात्रा सफल करती है वरना इस बस के भरोसे तो कभी बैकुण्ठ-धाम पहुंचा जा सकता है।



शास्त्री कॉलोनी, रायसिंह नगर-335051

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